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जानिए –आचार्य विजय गौड से “ब्रज चौरासी कोस यात्रा” का महत्व, सर्व प्रथम किसने की परीक्रमा

आचार्य विजय कुमार गौड (एम.ए.,एल.एल.बी.)

ब्रज  चौरासी कोस की परिकम्मा एक  देत।

          लख  चौरासी योनि  के  संकट हरिहर लेत॥

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  धर्म डेस्क, (आवाज केसरी) । आचार्य विजय गौड भक्तों को उपदेश देते हुए बताया कि एक बार नन्दबाबा और यशोदा मैया ने सभी तीर्थ स्थलों के दर्शन-यात्रा पर जाने की इच्छा प्रकट की। तो श्री कृष्ण जी ने उनसे कहा, “मैया, मैं सारे तीर्थों को ब्रज में ही बुला लेता हूँ। तुम ब्रज में ही सभी तीर्थ-स्थलों की दर्शन-यात्रा कर लेना। अतः समस्त तीर्थ ठाकुर जी की आज्ञानुसार ब्रज में निवास करने लगे। ऐसा माना गया है कि ब्रज-धाम की परिक्रमा-यात्रा सर्वप्रथम चतुर्मुख ब्रह्मा जी ने की थी। वत्स हरण के पश्चात् उनके अपराध की शान्ति के लिये स्वयं श्रीकृष्ण ने उन्हें ब्रज चौरासी कोस की परिक्रमा करने का आदेश दिया था। तभी से ब्रज यात्रा का सूत्रपात हुआ। श्री कृष्ण जी के प्रपौत्र श्री वज्रनाभजी द्वारा भी ब्रज यात्रा की गयी थी। कालांतर में परम रसिक संत शिरोमणि श्री स्वामी हरिदासजी, श्री हरिवंश जी, श्रीवल्लभाचार्य जी, श्री हरिराम व्यास जी, श्री चैतन्य महाप्रभु जी आदि अनेक वैष्णव एवं गौड़ीय सम्प्रदाय आचार्यों द्वारा ब्रज यात्रा का सुत्र पात हुआ,  जिसे आज भी लाखों भक्त प्रतिवर्ष करते हैं। ब्रज चौरासी कोस की यात्रा करने से मनुष्य को चौरासी लाख योनियों से छुटकारा मिल जाता है।

ब्रज शब्द का अर्थ एवं क्षेत्र

 आचार्य विजय  गौड का कहना है कि सत्य, रज, तम इन तीनों गुणों से अतीत जो पराब्रह्म है, वही व्यापक है। इसीलिए उसे ही ब्रज कहते हैं। यह सच्चिदानन्द स्वरूप परम ज्योतिर्मय और अविनाशी है। वेदों में भी ब्रज शब्द का प्रयोग हुआ है।

 “व्रजन्ति गावो यस्मिन्नति ब्रज:”

अर्थात् गौचारण की स्थली ही ब्रज कहलाती है। हरिवंश पुराणानुसार मथुरा के आस-पास की स्थली को ब्रज की संज्ञा दी गयी है। अष्टछाप के कवियों ने ब्रज शब्द को गोचारण, गोपालन तथा गौ और ग्वालों के विहार स्थल के रूप में वर्णित किया है। ब्रज में उत्तर प्रदेश का मथुरा जिला, राजस्थान के भरतपुर जिले की डीग और कामां तहसील एवं हरियाणा के पलवल जिले की होडल तहसील आती है।

ब्रज की महिमा

 हमारे देश की पवित्र भूमि ब्रज का स्मरण करते ही हृदय प्रेम रस से सराबोर हो जाता है, एवं श्री कृष्ण के बाल रूप की छवि मन-मस्तिष्क पर अंकित होने लगती है। ये ब्रज की महिमा है की सभी तीर्थ स्थल भी ब्रज में निवास करने को उत्सुक हुए थे एवं उन्होने श्री कृष्ण से ब्रज में निवास करने की इच्छा जताई। ब्रज की महिमा का वर्णन करना बहुत कठिन है क्योंकि इसकी महिमा गाते गाते ऋषि-मुनि भी तृप्त नहीं होते। भगवान श्री कृष्ण द्वारा वन गोचारण से ब्रज रज का कण-कण कृष्णरूप हो गया है तभी तो समस्त भक्त जन यहाँ आते हैं और इस पावन रज को शिरोधार्य कर स्वयं को कृतार्थ करते हैं। ब्रज में तो विश्व के पालनकर्ता  माखनचोर बन गये। इस सम्पूर्ण जगत के स्वामी को ब्रज में गोपियों से दधि का दान लेना पड़ा। जहाँ सभी देव, ऋषि मुनि, ब्रह्मा, शंकर आदि श्री कृष्ण की कृपा पाने हेतु वेद-मंत्रों से स्तुति करते हैं, वहीं ब्रजगोपियों की तो गाली सुनकर ही कृष्ण उनके ऊपर अपनी अनमोल कृपा बरसा देते हैं। रसखान ने ब्रज रज की महिमा बताते हुए कहा है-

          “एक ब्रज रेणुका पै चिन्तामनि वार डारूँ”

   वास्तव में महिमामयी ब्रजमण्डल की कथा अकथनीय है क्योंकि यहाँ श्री ब्रह्मा जी, शिवजी, ऋषि-मुनि, देवता आदि तपस्या करते हैं। श्रीमद्भागवत के अनुसार श्री ब्रह्मा जी कहते हैं-भगवान् ! मुझे इस धरातल पर विशेषतः गोकुल में किसी साधारण जीव की योनि मिल जाय, जिससे मैं वहाँ की चरण-रज से अपने मस्तक को अभिषिक्त करने का सौभाग्य प्राप्त कर सकूँ। भगवान शंकर जी को भी यहाँ गोपी बनना पड़ा –

          “नारायण ब्रजभूमि को, को न नवावै माथ,

           जहाँ  आप  गोपी  भये  श्री गोपेश्वर नाथ।

सूरदास जी ने लिखा है –

                  “जो  सुख ब्रज  में  एक  घरी,

                   सो सुख तीन लोक में नाहीं”।

          बृज की ऐसी विलक्षण महिमा है कि स्वयं मुक्ति भी इसकी आकांक्षा करती है –

        मुक्ति   कहै   गोपाल  सौ   मेरि  मुक्ति   बताय।

        ब्रज रज उड़ि मस्तक लगै मुक्ति मुक्त हो जाय॥

        श्री कृष्ण जी उद्धव जी से कहते हैं –

         “’ऊधौ मोहि ब्रज बिसरत नाहीं।

           हंस-सुता की सुन्दर कगरी,

                             अरु कुञ्जनि की  छाँहीं।

           ग्वाल-बाल मिलि करत कुलाहल,

                             नाचत गहि – गहि बाहीं॥

          यह  मथुरा कञ्चन की नगरी,

                            मनि  –  मुक्ताहल   जाहीं।

          जबहिं सुरति आवति वा सुख की,

                           जिय  उमगत   तन  नाहीं॥

          अनगन भाँति करी बहु लीला,

                           जसुदा     नन्द     निबाहीं।

          सूरदास  प्रभु रहे मौन ह्वै, 

                          यह  कहि-कहि  पछिताहीं॥

                       “जय जय श्री राधे”

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